जाति का सिद्धान्त (Concept of species)

जाति का सिद्धान्त (Concept of species)

   जाति क्या है इसे समझाने के लिए समय-समय पर अनेक सिद्धांत प्रस्तुत किये गये जो निम्न प्रकार है-
Species

प्ररूप विज्ञानिय जाति संकल्पना (Typological  Species Concept):-

   इस संकल्पना का मुल आधार जन्तुओं का प्ररूप ( आकार, रंग, आकृति आदि ) है। यह संकल्पना अरस्तु के समय से चली आ रही है तथा मनुष्य यह मानता आया है की जो एक से दिखते है वह एक ही जाति के सदस्य है परन्तु अनेक कारणों से सिर्फ प्ररूप के आधार पर जाति का निर्धारण नही किया जा सकता। इस संकल्पना मे निम्न कमिया है-
  • क्या अण्ड़ा, लार्वा, प्यूपा सभी अलग-अलग जातिया है
  • कुछ जातियों में बहुरूपता (दीमक व मधुमक्खी) या लैंगिक द्विरूपता मिलती है क्या इन्हैं अलग-अलग जाति कहा जाये। श्रमिक मधुमक्खी व रानी अलग-अलग जाति नही है।

जाति कि स्थैतिक अवधारणा (Static Concept of Species):-

   जाति कि स्थैतिक अवधारणा लिनियस के द्वारा प्रस्तुत की गई। लिनियस के अनुसार जाति अपरिवर्तनशील होती है। अर्थात जाति जैसी आज है वैसी कल भी थी और आगे भी वैसी ही रहेगी। लिनियस विशिष्ट सृजनवाद में विश्वास रखते थे। विशिष्ट सृजनवाद का प्रतिपादन फादरा सुरेज द्वारा किया गया जिसके अनुसार सजीवों को भगवान ने जिस रूप मे बनाया वो आज भी उसी रूप मे विद्यमान है।

जाति कि परिवर्तनशील अवधारणा (Dynamic Concept of Species):-

   इस अवधाारणा को लैमार्क ने प्रतिपादित किया था। लैमार्क कि इस अवधारणा ने लिनियस कि स्थैतिक अवधारणा के सिद्धांत को अमान्य कर दिया। इस अवधारणा के अनुसार जाति निरन्तर परिवर्तनशील है। जाति के लक्षणों मे पीढीं दर पीढीं परिवर्तन होते रहते है इसी का नाम विकास है।

जाति कि जैविक अवधारणा (Biological Concept of Species):-

   मेयर द्वारा प्रस्तुत इस अवधारणा के अनुसार ऐसे सभी सदस्य जो आपस मे प्रजनन कर सकते है तथा प्रजनन करके अपने जैसी संताने उत्पन्न कर सकते है एक जाति के सदस्य होते है। इस आधुनिक अवधारणा के अनुसार जाति प्राकृतिक रूप से अन्तः प्रजनन कर सकने वाली समष्टियाॅ है जो ऐसे अन्य समूहों के साथ प्रजनन नही कर सकती है या उनसे जननात्मक विलगन प्रदर्शित करती है। जब दो जातियों के बीच संकरण होता है तो उत्पन्न सन्तति बन्ध्य होती है। इसे वर्तमान स्वरूप देने का श्रेय के. जाॅर्डन को हैै।

बायोंलोजिकल जाति (Biological Species):-

   जब प्रजनन के आधार पर जाति का निर्धारण किया जाता है।

टेक्साॅनोमिक जाति (Taxonomic Species):-


   जब जाति का निर्धारण अन्य आकारिकी लक्षणों के आधार पर किया जाता है

जीव प्ररूप (Biotype):-

   एक ही जाति के ऐसे सदस्य जो समान वातावरण में रहते हुये भी कुछ आनुवंशिक विभिन्नऐ रखते है ऐसे सदस्य जीव प्ररूप या बायोंटाईप कहलाते है-

पारिप्ररूप (Ecotypes):-

   एक ही जाति के ऐसे सदस्य जो अलग-अलग वातावरण मे रहते है तथा जिनके लक्षणों में आनुवांशिक विभिन्नताऐ पायी जाती है ऐसे सदस्य इकोटाईप कहलाते है जैसे- अलग-अलग क्षैंत्रों के काॅए

अनुकूलक या पारिज (Ecophene or Ecad):-

   एक ही जाति के ऐसे सदस्य जिनमें वातावरण के कारण कुछ विभिन्नताऐ पायी जाती है ये विभिन्नताऐ आनुवंशिक नही होती है ये विभिन्नताऐ अस्थाई होती है।

सिबलिंग स्पिशीज ( Sibling Species):-

   ऐसी जातियाॅ जो आपस मे प्रजनन नही करती पर आकारिकी रूप से समान होती है सिबलिंग स्पिशीज होती है 

ऐलोपेट्रिक स्पिशीज (Allopatric Species):-

   भौगोलिक अवरोधों (पहाड़, समुंद्र) के कारण उत्पन्न जातिया जिनमें जननिक अवरोध उत्पन्न हो जाते है।

सिम्पेट्रिक स्पिशीज (Sympatric Species):-

   समान भौगोलिक क्षैत्र मे होते हुये भी अगर जननिक अवरोध उत्पन्न हो जावे अर्थात आपस मे प्रजनन नही कर पाये तो ऐसी जातिया सिम्पेट्रिक स्पिशीज कहालाती है।

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बेनामी
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21 सितंबर 2020 को 3:31 pm बजे ×

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बेनामी
admin
21 सितंबर 2020 को 3:33 pm बजे ×

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बेनामी
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21 सितंबर 2020 को 3:37 pm बजे ×

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